Freebies

मुफ्तखोरी
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देश के राजनीतिक हलकों में यह शब्द पिछले तीन चार दिनों से गूंज रहा है। 
Freebies
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The word has been echoing in the political circles of the country for the last three to four days. BJP leaders, their supporters and some right-leaning journalist colleagues are especially using this word to humiliate the voters of Delhi, because they have lured in the greed for free electricity, free water and free travel for women. Voted the party.

But to understand whether it is really free, just consider these figures. The government spends Rs 1720 crores every year in giving 200 units of electricity free in Delhi, the cost of giving water free is Rs 400 crores annually and the cost of providing free travel to women is Rs 140 crores. That is, the total budget of this alleged freebies is 2260 crores. That is, every person in Delhi with a population of two crores, the government is providing freebies of only Rs 1130. And this freebies are being promoted in such a way that the entire treasure is being looted.

Consider this figure instead. The NDA government had waived a total of Rs 6 lakh crore in its first term. In this, the loan of farmers was only 43 thousand crores. The remaining 5 lakh 57 thousand crore was the debt of the capitalists. Apart from this, this government waived tax of Rs 4,30,000 crore of corporate companies in its first term. In this way, the government gave a rebate of about ten lakh crores to a few industrialists of the country. Do we count it as freebies?

Every month MPs are given facilities worth Rs 2,70,000 by the government. An MLA also gets an average of two and a quarter lakhs. Do we call it freebies?

The ministers, MPs, MLAs, officers and many other people of the country get a bungalow spread over several acres at the prime location of the city. In this bungalow he does farming and many people even give this land on rent for marriage. Do we call it freebies?

The government officials, leaders and employees of the country together make an estimated corruption of 70 thousand crores every year, do we call it freebies?

Then why do we call a few decent facilities available to the public as freebies. Similarly, MNREGA, food subsidy, fertilizer subsidy and LPG subsidy are also called freebies.

In the schools and colleges, the low fee system was abused in the past. The common people of the country are insulted by mentioning the subsidy on railway tickets. Whereas, it is our money that provides the people of the country with facilities.

If you look at the system of a developed country, then you will see necessary government efforts to keep the system like education, health and transport cheap. It is not freebies, it is just an attempt to restore equality of opportunity. So that a poor family can also develop equally. But despite being a poor country, we have developed a view to humiliate this system, to humiliate ourselves. Whereas industrialists, politicians and government officials are not allowed to loot government money. Our system is based on this duality that we bid in the name of providing convenience to the poor and power gives all kinds of concessions to the dominant people.

Actually it is not a political idea, it is basically the main idea of ​​right-wing economy. She opposes subsidies to the poor and suggests ways to eliminate them in a phased manner. Subsidy in the bank account is also part of the same idea. Thinkers like Gurucharan Das are advocates of this in India. This idea refers to free spending on the facilities of the poor and government expenditure on industry as liberalism.

But even if you are one of the poor and middle class citizens of this country, even if you call government money spent on the facilities of common people, it is ridiculous.

Desh hit me












भाजपा के नेता, उनके समर्थक और कुछ दक्षिणपंथी झुकाव वाले पत्रकार साथी खास तौर पर इस शब्द को दिल्ली के वोटरों को अपमानित करने के लिये इस्तेमाल कर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और महिलाओं के लिये मुफ्त यात्रा के लालच में आम आदमी पार्टी को वोट दे दिया। 

मगर क्या यह वाकई मुफ्तखोरी है, इसे समझने के लिए जरा इन आंकड़ों पर गौर कीजिए। दिल्ली में 200 यूनिट बिजली मुफ्त देने में सरकार हर साल 1720 करोड़ रुपये खर्च करती है, पानी मुफ्त देने का खर्च 400 करोड़ रुपये सालाना है और महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने का खर्च 140 करोड़ रुपये है। यानी इस कथित मुफ्तखोरी का कुल बजट 2260 करोड़ रुपये है। यानी दो करोड़ की आबादी वाली दिल्ली के हर व्यक्ति को सरकार सिर्फ 1130 रुपये की मुफ्तखोरी करा रही है। और इस मुफ्तखोरी को कुछ इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि सारा खजाना लुटाया जा रहा है।

इसके बनिस्पत इस आंकड़े पर गौर कीजिए। एनडीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कुल 6 लाख करोड़ की कर्जमाफी की थी। इसमें किसानों का कर्जा सिर्फ 43 हजार करोड़ था। शेष 5 लाख 57 हजार करोड़ पूंजीपतियों का कर्ज था।  इसके अलावा इसी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कारपोरेट कम्पनियों का 4,30,000 करोड़ रुपये का टैक्स माफ कर दिया। इस तरह देखें तो देश के चंद उद्योगपति को सरकार ने लगभग दस लाख करोड़ का रिबेट दिया। क्या इसे हम मुफ्तखोरी में गिनते हैं।

देश के हर सांसद को हर महीने सरकार की तरफ से 2,70,000 रुपये की सुविधाएं दी जाती हैं। एक एमएलए भी औसतन सवा दो लाख की सुविधा पाता है। क्या हम इसे मुफ्तखोरी कहते हैं?

देश के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, अफसरों और दूसरे कई लोगों को शहर के प्राइम लोकेशन पर कई एकड़ में फैला बंगला मिलता है। इस बंगले में वह खेती करवाता है और कई लोग तो यह जमीन शादी के लिये किराए पर भी देते हैं। इसे क्या हम मुफ्तखोरी कहते हैं?

देश के सरकारी अधिकारी, नेता और कर्मचारी मिल कर अनुमानतः हर साल 70 हजार करोड़ का भ्रष्टाचार करते हैं, क्या इसे हम मुफ्तखोरी कहते हैं?

तो फिर हम आमलोगों को मिलने वाली चंद वाजिब सुविधाओं को क्यों मुफ्तखोरी कहते हैं। इसी तरह मनरेगा, खाद्य सब्सिडी, उर्वरकों की सब्सिडी और रसोई गैस की सब्सिडी को भी मुफ्तखोरी कहने चलन है।

स्कूल और कॉलेजों में कम फीस वाली व्यवस्था को पिछले दिनों न जाने कितनी गालियां दी गईं। रेलवे टिकट पर सब्सिडी का उल्लेख कर देश के आम लोगों को अपमानित किया जाता है। जबकि यह हमारा ही तो पैसा है जिससे देश के लोगों को सुविधाएं मिलती हैं।

आप अगर किसी विकसित मुल्क की व्यवस्था पर गौर करें तो वहां आपको शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन जैसी व्यवस्था को सस्ता रखने के जरूरी सरकारी प्रयास नजर आएंगे। यह मुफ्तखोरी नहीं है, यह सिर्फ अवसर की समानता बहाल करने की कोशिश है। ताकि एक गरीब परिवार भी समान रूप से विकसित हो सके। मगर एक गरीब मुल्क होने के बावजूद हमने इस व्यवस्था को अपमानित करने का, खुद को अपमानित करने का एक नजरिया विकसित कर लिया है। जबकि उद्योगपति, नेताओं, सरकारी अफसरों को मिली सरकारी धन की लूट की छूट हमें अखरती नहीं है। हमारी व्यवस्था इसी द्वंद्व पर आधारित है कि हम गरीबों को सुविधा देने के नाम पर बिदकते हैं और सत्ता प्रभुत्वशाली लोगों को हर तरह की रियायत देती है।

दरअसल यह कोई राजनीतिक विचार नहीं, यह मूलतः दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था का मुख्य विचार है। वह गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी का विरोध करती है और उसे चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के रास्ते सुझाती है। बैंक खाते में सब्सिडी भी उसी विचार का हिस्सा है। गुरुचरण दास जैसे विचारक भारत मे इसके पैरोकार हैं। यह विचार गरीबों की सुविधाओं पर होने वाले व्यय को मुफ्तखोरी और उद्योग पर होने वाले सरकारी व्यय को उदारवाद कहती है।

पर अगर आप इस देश के गरीब और मध्यम वर्ग नागरिकों में से एक हैं, तब भी आप आम लोगों की सुविधाओं पर खर्च होने वाले सरकारी पैसों को मुफ्तखोरी कहते हैं तो बात हास्यास्पद मालूम होती है।
Desh hit me














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